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जब फूलोँ मेँ हो जाता है डाली के प्रति आदर कम,
गुलशन कि आँखोँ मेँ खटके जब-जब पतझड़ के मौसम,
तब खुलते हैँ गाँव गली और नगर-नगर मेँ वृद्धाश्रम....।
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नो महीने तक गर्भ मेँ माँ बच्चे का बोझ उठाती है,
अपनी छाती से चिपका कर अमृत पान कराती है,
खुद गीले मेँ सोती हे सुखे मेँ उसे सुलाती हैँ,
उसकी सुविधा कि खातिर सब दुविधाएं सह जाती हैँ,
पर बेटे जब बुढ़ी माँ संग चल ना पाये चार कदम,
अक्षर के आदेशो को जब करती है अस्वीकार कलम,
तब खुलते हैँ गाँव गली और नगर-नगर मेँ वृद्धाश्रम....।
बाप पकड़ कर उँगली बेटे को चलना सिखलाता हैँ,
जब बेटा थक जाये तो झट कांधे पर बिठलाता है,
भालू बंदर घोड़ा बन कर उसका मन बहलाता हैं,
और बेटे का बाप कहा कर मन ही मन ईठलाता हैँ,
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वही बाप जब बुढ़ापे मेँ लगता नाकारा बेदम,
आधुनिकता ढक देती हैँ जब आँखो कि लाज शरम,
तब खुलते हैँ गाँव गली और नगर-नगर मेँ वृद्धाश्रम.....।
बेटी पर दामाद का हक हैँ,और बेटोँ पर बहुओँ का,
अपनी पूंजी अपनी सम्पत्ती पर अधिकार हैँ गैरो का,
आखीर क्या उपचार है ऐसे माँ बापो के दुःखो का,
पथ्थर को पीघला ना पाये जब दो जोड़ी आँखे नम,
आशीर्वादो की भूमि पर जब लेते हैँ श्राप जनम,
तब खुलते हैँ गाँव गली और नगर-नगर मेँ वृद्धाश्रम....।।
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जिसकी खातिर माँ ने मंदिर मंदिर मन्नत मांगी थी,
जिसको गोद मेँ लेकर वो रात रात भर जागी थी,
पढ़ा लिखा कर पिता ने जिस से कुछ आशाएँ बांधी थी,
जिस पर अंध भरोसा कर के हाथ कि लकड़ी त्यागी थी,
जीवन संध्या मेँ जब वो ही दे दे तन्हाई का ग़म,
तानपुरे को बोझ लगे जब उखड़ी साँसो कि सरगम,
तब खुलते हैँ गाँव गली और नगर नगर मेँ वृद्धाश्रम.....।।
यौवन के मद मेँ जो भी माँ बाप के मन को दुखाएगेँ,
वो खुद भी अपनी संतानो से ठुकराये जाएगेँ,
अलग पेड़ से होकर फूल सभी मुरझाएगेँ,
इक दिन आएगा वो अपनी करनी पर पछताएगेँ,
सूरज को पी जाने को जब आतुर हो जाता है दम,
तिनके को जब हो जाता है ताकतवर होने का भ्रम,
तब खुलते हैँ गाँव गली और नगर-नगर मेँ वृद्धाश्रम....।।
-------------------------डॉक्टर कविता किरन
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